सानवी सरीखी – विकाश कुमार

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मेरी सरल कविता के अक्षर , गर पहुँच पाते अम्बर
तेरी किलकारियाँ हरी भी सुनते, जड़ समान वशिभूत होकर ।

नन्ही नन्ही आँखों से , छु डाला मन के भीतर
वो पहली मुस्कान तेरी , उज्जवल कर डाली हर दिशा प्रखर ।

एक कवि की कल्पना तू , एक गीत का तू स्वर
मूर्तिकार की देवी जैसे , ध्यान ना हट पाता शण भर ।

जिस दिवस आयी तू धरा पर, जीवन मेरा गया निखर
तू साक्षात सानवी सरीखी, मैं धन्य तू आयी है मेरे घर ।

                                         – विकाश कुमार
(मेरी दो माह की बेटी सानवी के लिए लिखी गयी)

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